तुलसीदास जी को अधिकतर लोग रामचरित मानस के रचयिता के रूप में जानते हैं यह उनको जानने का एक बड़ा पहलू था,लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि प्राथमिक तौर पर वह गहरे रामभक्त, परमज्ञानी और दार्शनिक थे। रामबोला से तुलसीदास बनने की कहानी बहुत ही संघर्षमय है जिस बच्चे के जन्म लेते ही 10 दिन के भीतर माता पिता का निधन हो गया हो लोग उन्हें अभागा समझते थे।
10 साल की उम्र में भूख से व्याकुल बालक को मार्गदर्शक के रूप में गुरु मिले और यहीं से शुरू होती है गोस्वामी बनने की कहानी तो शुरुवात से तुलसीदासजी का प्रारंभिक जीवन,शिक्षा और तपस्वी जीवन से लेकर भगवान हनुमान और श्रीराम के दर्शन,रचनाओं के बारे में जानेंगे।
गोस्वामी तुलसीदासजी का प्रारम्भिक जीवन
गोस्वामीजी का जन्म 1511ईस्वी (सम्वत 1568) में चित्रकूट क्षेत्र के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था, यह गांव यमुना नदी के किनारे स्थित है। हालांकि उनके जन्म को लेकर विद्वानों के अलग अलग मत हैं कुछ लोग उनका जन्म स्थान जिला एटा में एक गांव को मानते थे वर्तमान में यह ग्राम कासगंज जिले में हैं।
पूरा नाम | गोस्वामी तुलसीदास |
बचपन का नाम | रामबोला |
उपनाम | गोस्वामी, अभिनववाल्मीकि, इत्यादि |
जन्मतिथि | 11 अगस्त 1511 ई० (सम्वत्- 1568 वि०) |
पिता का नाम | आत्माराम शुक्ल दुबे |
माँ का नाम | हुलसी दुबे |
पत्नी का नाम | बुद्धिमती (रत्नावली) |
बच्चो के नाम | बेटा– तारक बालपन में ही निधन |
जन्म स्थान | राजापुर, चित्रकूट उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 1623 ई० (संवत 1680 वि०) |
मृत्यु का स्थान | वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
गुरु / शिक्षक | नरसिंहदास, शेष सनातन |
धर्म | हिन्दू |
जाति | ब्राह्मण |
दर्शन | वैष्णव |
इनका जन्म ब्राह्मण कुल में पिता पण्डित आत्माराम दुबे और माता हुलसीजी के घर में हुआ था। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार तुलसीदास का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ था ऐसा माना जाता है कि इस नक्षत्र में पैदा होने वाले बालक के ऊपर माता पिता का साया नही रह जाता है यही कारण है कि माता पिता की मृत्यु बहुत जल्द हो गई। हालांकि बालक तुलसी का त्याग ज्योतिषी के कहने पर पिता ने कुछ घंटों के भीतर कर दिया था और गांव की ही दाई अम्मा चुनिया ने उनका पालन पोषण किया। कहते हैं मात्र कुछ महीने की आयु में तुलसी ने अपने मुख से जो पहला शब्द कहा वह 'राम' था यही कारण था कि उनका बचपन का नाम "रामबोला" पड़ गया।
बालक रामबोला जब 10 वर्ष की अवस्था में पहुंचा तब पालन करने वाली दाई अम्मा चुनिया का निधन हो गया उनके मरने के बाद बालक रामबोला को घर से बाहर निकाल दिया गया जिस वजह से दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी और भूख से व्याकुल बालक तुलसी ने पास के मंदिर में शरण ली। बचपन से ही उनके ग्रामीण अंचल में यह अफवाह थी कि बालक रामबोला बहुत ही अभागा बालक है इसलिए उसके माता पिता और पालन करने वाले चल बसे इसीलिए उन्हें कोई भी भोजन नहीं देता था क्युकी लोगों को लगता था कि जो भी इनका पालन पोषण करेगा स्वर्ग सिधार जाएगा।
तुलसीदास के गुरु और शिक्षा
बालक रामबोला 10 वर्ष की अवस्था में मंदिर में शरण ली तभी उस मंदिर में बाबा श्रीनरहरि का आगमन हुआ।बाबा ने बालक के बारे में मंदिर के पुजारी से पूछा तो उत्तर के रूप में बालक के माता पिता से लेकर उनकी भूख तक का सारा वृतांत सुना दिया यह सुनकर बाबा नरहरी का दिल पसीज गया उन्होंने तुलसी को अपने पास बुलाया और बोले कि
बालक! तुम भगवान राम की शरण में क्यों नही जाते?
बालक बोलता है कि कौन हैं यह और कहां मिलेंगे?
तब बाबा बोलते हैं कि इनकी शरण में जो जाता है उसे संसार का कोई दुख हरा नहीं सकता और यह कहकर अपनी कुटिया में ले गए जहां पर बाबा ने रामबोला(तुलसी) से कहा कि जो मैं बोलूं उसका उच्चारण करके बोलना और उन्होंने बोला "श्रीराम जय राम जय जय राम" बालक तुलसी ने भी हुबहू दोहराया बाबा अत्यंत प्रसन्न हुए और बालक को खूब आशीर्वाद दिया।
कुछ समय बाद बालक रामबोला ने संत नरहरि से श्रीराम की कहानी सुनने की इच्छा जताई तब नरहरि बाबा ने रामकथा का वाचन किया जिसको सुनने के बाद बालक का मन काफी शांत और मन परिवर्तित हुआ कुछ समय बाद बालक तुलसी ने रामकथा पढ़ने की इच्छा जताई मगर वह पाठन में असमर्थ रहे परिणामस्वरूप बाबा नरहरी बालक तुलसी को लेकर बनारस प्रवास के लिए निकल गए।
बनारस पहुंचकर एक गुरुकुल में बालक रामबोला की शिक्षा के प्रवेश के लिए वहां के प्राचार्य आचार्य शेषसनातन से विनती की। आचार्य महोदय ने बालक को प्रवेश दिया और बनारस में गुरुकुल में ही रहकर तुलसीदास की शिक्षा संपन्न हुई। लगभग 10 वर्षों की शिक्षा में वेद, पुराण, वेदांग, दर्शन, उपनिषद, ज्योतिष आदि ग्रंथो का ज्ञान प्राप्त करने के बाद आचार्य ने बालक रामबोला को तुलसीदास नाम दिया और बोले की तुम्हारी शिक्षा संपन्न हुई।
तुलसीदास ने उनसे गुरुदीक्षा के रूप में मांगने को कहा तब आचार्य ने तुलसी से कहा कि जो इस संसार में भगवान श्रीराम के नाम का महिमामंडन और गुणगान को प्रसारित करो तब तुलसी कहते हैं कि यह तो मेरा परम कर्तव्य है। आचार्य कहते हैं कि मेरी इच्छा है कि तुम गृहस्थ रहो क्योंकि प्रभु राम भी गृहस्थ थे तब तुलसी ने कहा कि जैसी आपकी आज्ञा! इतना कहकर गुरुदेव से आज्ञा लेकर तुलसी अपनी जन्मभूमि वापस आ जाते हैं और रामकथा का वाचन कर काफी नामचीन हो जाते हैं।
तुलसीदास का विवाह रत्नावली से
तुलसीदास के गांव राजापुर से यमुना नदी के उस पार महेवाघाट नाम का गांव था जहां पर एक समृद्ध ब्राह्मण परिवार दीनबंधु पाठक रहते थे।
पाठक दीनबंधु के घर पर एक दिन गांव के ही व्यक्ति ने उनकी पुत्री रत्नावली की शादी के लिए तुलसीदास के नाम का प्रस्ताव दिया तब रत्नावली के पिता दीनबंधु का जवाब था कि वह तो बहुत गरीब है तब उस व्यक्ति ने कहा कि ब्राह्मण का सबसे बड़ा धन तो ज्ञान है और उससे योग्य वर इस क्षेत्र में कोई नहीं है यह बात सुनकर पाठक दीनबंधु राजी हो जाते हैं और कुछ ही दिनों में तुलसीदास और रत्नावली का विवाह संपन्न हो जाता है।
तुलसीदास का वैराग्य की दिशा में समर्पण
विवाह के बाद तुलसीदास और रत्नावली को कुछ समय पश्चात एक संतान रूप में पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उस पुत्र का नाम तुलसी ने तारक रखा किंतु कुछ सालों बाद ही पुत्र अचानक चल बसा जिससे पुत्र की माता रत्नावली अत्यंत अवसाद में रहने लगी जिसकी वजह से तुलसी अत्यन्त ख्याल रखने लगे और हमेशा उनके पास ही रहते। रत्नावली को कई बार तुलसी के इस व्योहार के लिए लोगों के सामने काफी शर्मिंदगी महसूस करनी पड़ती थी क्योंकि लोग यह ताना देते थे कि पत्नी के प्रेम में पण्डित तुलसी अपनी शिक्षा दीक्षा सब भूल गए हैं यह बात रत्नावली को अच्छी नहीं लगती थी।
एक कहानी बहुत प्रचलित है कि रत्नावली अपने मायके यमुना के उस पर अपने गांव चली जाती हैं और रात में अचानक तुलसीदास का मन उनसे मिलने का होता है उस दिन बारिश भी जोर की थी और यमुना अपने उफान पर थी किंतु तुलसी ने नदी पार कर ससुराल जाने के लिए हठ कर लिया और नदी में बहती लाश को पकड़कर किनारे चले गए और ससुराल भीगते हुए पहुंचे यह देखकर रत्नावली मायके वालों के सामने शर्मसार हो गई और गुस्से में तुलसीदास जी से कहा कि "जितना मन इस हाड़ मांस के शरीर में लगाते हो उतना मन अगर प्रभु राम की भक्ति में लगाते तो इस संसार के मोह से हटकर शाश्वत आनंद को प्राप्त करते"
यह बात तुलसी का सीना छल्ली हो गया और वहीं से हृदय परिवर्तन हो गया और बिना बोले ही वहां से निकल गए, कहते हैं कि 14 बरस तक भिन्न भिन्न स्थान पर भटकने के बाद काशी(बनारस) पहुंचे जहां पर वह कुटिया बनाकर श्रीराम की भक्ति और कथा में लीन रहने लगे।
बजरंगबली ने तुलसीदास को दिए दर्शन
बनारस के घाट पर जब तुलसी श्रीराम कथा कहते थे तब बहुत सारे लोग उनकी कथा श्रावण कर आनंद प्राप्त करते थे। कथा के दौरान तुलसी ने एक बात का ध्यान दिया कि एक अत्यन्त बुजुर्ग व्यक्ति गंगा में डुबकी लगाकर सबसे पीछे बैठकर कथा को बड़े ही तन्मयता से सुनता है उनके इस तरह के भाव को देखकर तुलसीदास के मनोभाव में अपने आप ज्ञान होता है कि यह कोई और नहीं श्रीराम भक्त हनुमान हैं और एक दिन जैसे ही वह बुजुर्ग गंगा में नहा कर निकलते हैं तभी तुलसीदास पैरों में दंडवत हो जाते हैं और कहते हैं कि प्रभु मैने आपको पहचान लिया है तभी उन बुजुर्ग साधु ने कहा कि श्रीराम आपका भला करें और जाते जाते मार्गदर्शन करते हैं कि चित्रकूट में आपको श्रीराम के दर्शन होंगे।
श्रीरामचंद्र ने जब तुलसीदास को दिए दर्शन
हनुमान जी के मार्गदर्शन अनुसार तुलसीदास बनारस से चित्रकूट चले जाते हैं और वहां पर कुटिया बनाकर रहने लगते हैं और चित्रकूट में स्थित कामदगिरि पर्वत की रोजाना परिक्रमा करते हैं।
कुछ साल बीतने के बाद एक दिन वह समय आया जब श्रीराम ने तुलसीदास को दर्शन दिए, कई जगह प्रसंग पढ़ने को मिलता है कि रोजाना की तरह माघ माह की मोहिनी अमावस्या को चित्रकूट में मंदाकिनी नदी के तट पर बैठकर तुलसीदास श्रीराम का सुमिरन करने के साथ ही चंदन घिस रहे थे तभी एक बालक आता है और उनसे आग्रह करता है कि उसको भी चन्दन लगा दें तभी हनुमान जी तोता का रूप धारण कर आ जाते हैं और एक चौपाई के माध्यम से कहते हैं कि
"चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥"
तुलसीदास ने लिखा कि प्रभु श्रीराम को देखकर सुधबुध खो गया था उनका वह मंत्रमुग्ध हो गए थे। और वह बालक के रूप में भगवान श्रीराम गोस्वामी तुलसीदास को चंदन लगाकर अदृश्य हो जाते हैं।
तुलसीदास जी की रचनाएँ
तुलसीदास ने सम्पूर्ण जीवन श्रीराम की भक्ति में बिताया अपने 112 साल के लम्बी आयु में अनेकों रचनाएं लिखी रामचरितमानस और हनुमान चालीसा सर्वश्रेष्ठ रचनाएं हैं आज जन जन में मानस की चौपाइयों ने ज्ञान के बीज बोए हैं। उनकी रचनाएं इस प्रकार हैं।
तुलसीदासजी द्वारा रचित पुस्तकें | वर्ष |
रामचरितमानस | 1574 ईस्वी |
रामललानहछू | 1582 ईस्वी |
वैराग्यसंदीपनी | 1612 ईस्वी |
सतसई | अज्ञात |
बरवै रामायण | 1612 ईस्वी |
हनुमान बाहुक | अज्ञात |
कविता वली | 1612 ईस्वी |
गीतावली | अज्ञात |
श्रीकृष्णा गीतावली | 1571 ईस्वी |
पार्वती-मंगल | 1582 ईस्वी |
जानकी-मंगल | 1582 ईस्वी |
रामाज्ञाप्रश्न | अज्ञात |
दोहावली | 1583 ईस्वी |
विनय पत्रिका | 1582 ईस्वी |
छंदावली रामायण | अज्ञात |
कुंडलिया रामायण | अज्ञात |
राम शलाका | अज्ञात |
झूलना | अज्ञात |
हनुमान चालीसा | अज्ञात |
संकट मोचन | अज्ञात |
करखा रामायण | अज्ञात |
कलिधर्माधर्म निरूपण | अज्ञात |
छप्पय रामायण | अज्ञात |
कवित्त रामायण | अज्ञात |
रोला रामायण | अज्ञात |
इनकी रचनाएं श्रीराम और हनुमानजी को समर्पित हैं।
तुलसीदास की मृत्यु
गोस्वामी तुलसीदास जी का अंतिम समय बनारस में बीता। 1623ई सम्वत(1680) को सावन मास कृष्ण पक्ष में तीज के दिन 112 साल की उम्र में श्रीराम का नाम लेते हुए काशी के असी घाट में श्रीराम नाम में विलीन हो गए। उनकी मृत्यु के संदर्भ में एक दोहा काफी प्रसिद्ध है
” संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर |
श्रावण कृष्णा तीज शन, तुलसी तज्यो शारीर||
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समापन
तुलसीदास जैसी महान विभूतियां सदियों में कोई एक ही पैदा होता है। भक्ति और साहित्य का ऐसा मिलन संसार में विरले होता है वह महाकवि हैं जब तक धरती अस्तित्व में है तुलसीदास प्रेरणास्रोत रहेंगे।
इस लेख को पूरा करने में कई सारे लेखों से जानकारी एकत्र की है कोई भी त्रुटि होने पर लेखक या संस्थान जिम्मेदार नहीं होगा, अगर आप कमेंट कर बताएंगे तो कमी को दूर करने का प्रयास किया जाएगा, धन्यवाद।